पहले के समय में युद्ध हथियारों से लडे जाते थे किन्तु आज परिस्थितियां बिल्कुल ही
भिन्न हैं। अब युद्ध जैविक भी लडे जा सकते हैं। इस प्रकार के युद्ध में लोगों की मृत्यु
अधिक होने की संभावना होती है क्योंकि इसमें वायु, जल और भोजन में संंक्रमित जीवाणु
छोडे जाते हैं, जो लोगों में तेजी से फैलते हैं, लोगों को संक्रमण के लक्षणों की जानकारी
ही नहीं होती है और उपचार की संभावनाएं भी काफी कम होती हैं। मृत्यु अधिक संख्या में
होती हैं ।
आज पूरी दुनिया कोविड-19 नामक वायरस से लड रही है ।
यह कोविड-19 वायरस क्या है ?
यह एक जैविक वायरस है जिसने पूरी दुनिया में हाहाकार मचा रखा है। यह एक जैविक आक्रमण
है। यह हमला हथियारों का नहीं, जीवाणुओं का है। जिससे मरने वालों की संख्या पूरी दुनिया
में लाखों तक पहुंच गई है। जाने अनजाने भारत भी इसकी चपेट में आ चुका है।
जैविक आक्रमण क्या है ?
जैविकीय आपात स्थिति उस समय पैदा होती है जब दुर्घटनावश या आक्रमण के उद्देश्य से संक्रमित
रोगाणु किसी देश में फैल जाते हैं। रोगाणुओं को हवा में, पानी में, या भोजन में हो
सकते हैं जिससे बडी संख्या में लोग मरने लगते हैं। रोगाणु एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति
में तेजी से फैलते हैं।
आरम्भ में संक्रमण को पहचानना आसान नहीं होता। जब तक फैलने के कारणों को पहचाना नहीं
जाता, तब तक दुष्प्रभाव से बचने के विकल्प भी न के बराबर ही होते हैं। इसलिए ऐसे समय
में सरकार द्वारा तय की गई गाइड लाइन को ही मानना चाहिए।
इस प्रकार की स्थिति में संभव है- संक्रमित व्यक्ति जान ही न पाये कि वह संक्रमित है।
इसके लक्षण संक्रमण की किस्म पर निर्भर करते हैं। इन विकट परिस्थितियों में भारत के
लिए सकारात्मक पहलू यह है कि हमें पहले से ही कोविड-19 के संक्रमित लक्षणों की जानकारी
है। दूसरा पहलू यह है कि हमारे यहां मलेरिया की दवाई इस संक्रमित बीमारियों पर सकारात्मक
प्रभाव डाल रही है। इसके बाद भी भारत में यह तेजी से फैल रहा है। कारण कई हैं।
भारत में परिस्थितयां, बाकी दुनिया से अलग हैं। यहां जनसंख्या अधिक है। यहां की संस्कृति
भिन्न हैं। अनेकों त्योहार हैं, जिन्हें मनाने के लिए लोग आपस में इकटठा होते हैं।
जो संक्रमण को फैलने में सहायक है। भारत के अधिकतर लोग अशिक्षित होने के साथ ही लापरवाह
भी हैं जिन्हें इस प्रकार के संक्रमण की भयानकता का अंदाजा ही नहीं है, जिससे संक्रमण
के फैलने में मदद मिलती है।
भारत में धार्मिक कटटरता भी कोविड-19 के फैलने का मुख्य कारण है। लोग धार्मिक उन्माद
में यह भूल ही जाते हैं कि जैविक संक्रमण के परिणाम इतने भयानक हो सकते हैं कि मानव
जाति का अस्तित्व ही खतरे में पड सकता है। किन्तु लोगों को लगता है कि यह हमें नहीं
होगा और गलतियां कर बैठते हैं। इसके अतिरिक्त और भी बहुत से कारण हैं- जैसे साफ-सफाई
न रखना, खान-पान, लोगों का सामाजिक दायरा, रोग प्रतिरोधक क्षमता का कम होना, और हमारी
बदलती और गलत आदतें आदि।
सर्वप्रथम अभी हम चर्चा करेंगे कि इस प्रकार के जैविक दुर्घटना या आक्रमण के दुष्प्रभाव
से तुरंत कैसे बचा जा सके, या रोका जाये।
* यदि आपको ऐसा महसूस होता है कि आप इसके प्रभाव में आ चुके हैं तो
तुरंत अपने चिकित्सक से संपर्क करें।
* बैक्टीरिया, रोगाणु या वायरस तथा परजीवी संक्रमण का कारण बनते हैं।
इसलिए ऐसे उपाय करें कि जिससे संक्रमण को फैलने से रोका जा सके।
* अपने हाथ बार-बार साबुन से धोएं। अपने हाथ कलाई, नाखून आदि को अच्छे
से धोएं।
* खांसने, छींकने, अथवा नाक आदि साफ करने के बाद हाथों को अच्छे से
धोएं। लोगों के संपर्क में आने से बचें।
* आंखों को छूने से बचें।
* अपने मुंह और नाक को मास्क या किसी रूमाल से ढकें।
* साफ कपडे पहनें, संक्रमित कपडों को किसी प्लास्टिक की थैली में
रखकर मजबूती से बांध दें जिससे वह कोई अन्य व्यक्ति को संक्रमण का खतरा न हो।
* लोगों से मिलना-जुलना बिल्कुल ही बंद कर दें।
* डॉक्टरों और प्रशासन के साथ सहयोग करें।
हम ऐसा क्या करें या स्वयं को और समाज या देश को ऐसा क्या दें जिससे भविष्य में होने
वाली जैविक दुर्घटनाओं या आक्रमणों से पूर्ण रूप से सुरिक्षित रखा जा सके।
भारतीय संस्कृति बहुत ही प्राचीन है। हमारे वेदों, पुराणों या ग्रंथों में इन विषयों
की चर्चा भी है। ऋषि-मुनियों को योग और आसनों द्वारा ऐसी शक्तियां प्राप्त थीं कि वह
हिमालय की बर्फीली पहाडियों पर सिर्फ एक वस्त्र में स्वयं को निरोगी और स्वस्थ रख पाते
थे।
आसनों और योग द्वारा हमारे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढती है जिससे व्यक्ति या
तो बीमार पडता ही नहीं है यदि प्रभावित हो भी जाता है तो उपचार के बाद फिर से स्वस्थ
हो जाता है। जिससे जैविक संक्रमण फैलने की संभावना कम होती है।
आसन क्या है ?
हमारे योग शास्त्र में आसनों के प्रवर्तक भगवान शिव हैं। इसका लिखित वर्णन 'हठयोगप्रदीपिका'
में किया गया है। आसनों का अभ्यास, स्वास्थ्य लाभ एवं उपचार के लिए किया जाता है। आसन
न केवल शारीरिक उपचार, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक व्यक्तित्व विकास के लिए भी किए
जाते हैं। आसनों का अभ्यास आराम से और धीरे-धीरे आरम्भ करना चाहिए। आसन हमारे शरीर
को उच्च रोग प्रतिरोधक क्षमता और आध्यात्मिक अनुभव के लिए तैयार करते हैं।
आसन शरीर की वह स्थिति है जब हमारा शरीर और मन के साथ शांत, स्थिर और सुख से रह सके।
अर्थात- ‘स्थिरम् सुखम् आसनम्।’
आसनों का अभ्यास बिना कष्ट के एक ही स्थिति में अधिक समय तक बैठने के लिए किया जाता
है। इसके अतिरिक्त आसनों का दूसरा उद्देश्य प्राण ऊर्जा को विभिन्न चक्रों में संचालित
करना है। एक ही स्थिति में बैठने से विचारों में शून्यता आती है और वह उन्मनी अवस्था
उपलब्धि ही योग का उद्देश्य है।
आसनों के दौरान ही हमें प्राणायाम का भी अभ्यास करना चाहिए। प्राण समस्त ब्रह्माण्ड
की ऊर्जा हैं। जिसका श्वास वायु का घनिष्ठ संबंध है। श्वास वायु और प्राण दोनों एक
नहीं हैं। प्राण, वायु से भी अति सूक्ष्म हैं।
प्राणायाम को अर्थ – प्राणों का विस्तार से है। प्राणायाम का मुख्य उद्देश्य शरीर
में प्राण शक्ति को बढाना और प्राणशक्ति पर नियंत्रण रखना है। प्राणायाम के अंतर्गत
अनुलोम-विलोम, नाडी शोधन, शीतली, शीतकारी, भ्रामरी, भस्त्रिका, कुंभक, कपालभाति, उज्जायी,
सूर्यभेद, मूर्छा आदि आते हैं।
1. अनुलोम-विलोम प्राणायाम
2. शीतली प्राणायाम
3. भ्रामरी प्राणायाम
4. भस्त्रिका प्राणायाम
5. कपालभाति प्राणायाम
6. उज्जायी प्राणायाम
नोट: प्राणायाम का अभ्यास योग के विशेषज्ञों के सानिध्य में ही करना चाहिए। तभी
इनसे लाभ प्राप्त हो सकेगा।
आसन मुख्य रूप से चौरासी माने गये हैं। जिनमें मुख्य रूप से पवनमुक्ता आसन, पश्चिमोतान
आसन, उत्तानपाद आसन, मत्स्य आसन, भुजंगासन, सर्वांगासन, सिंहासन, अधर्मत्स्येन्द्रासन,
गोमुख आसन, श्वास आसन, वज्रासन, पद्मासन या सुखासन आदि। यदि उपरोक्त आसनों का नियमित
रूप से अभ्यास किया जाता है तो शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढती है। शरीर निरोगी और दीर्घायु
होता है। रामायण, महाभारत काल के समय व्यक्ति की आयु सैकडों में होती थी। जिक्र तो
यहां तक मिलता है कि रावण ने इतने हजार वर्षों तक तपस्या की और भगवान शिव को प्रसन्न
किया। यह सब योग और आसनों के द्वारा संभव है। बजरंग बली हनुमान जी को अष्ट सिद्ध और
नौ निधियों का दाता माना गया है। वह अपनी इच्छा अनुसार अपने शरीर को जितना चाहे बढा
सकते थे। आकाश में वायु से भी तेज गति से एक स्थान से दूसरे स्थान से जा सकते थे। आज
यह बेशक चमत्कार की श्रेणी में अवश्य आता है किन्तु उस समय यह संभव था। योग और आसनों
के द्वारा शरीर में इतनी योग्यता आ जाती थी कि असंभव कार्य भी संभव हो जाते थे। आज
योग और आसनों द्वारा इतना सब तो शायद ही प्राप्त कर पायें किन्तु अपने शरीर की रोग
प्रतिरोधक शक्ति को बढा कर किसी प्रकार के जैविक या फिर अन्य संक्रमण से सुरक्षित अवश्य
रख सकते हैं।
आज यह अति आवश्यक है कि जिस प्रकार समय बदल रहा है और जीवन जटिलताओं से भरा है। तो
यह आवश्यक हो जाता है कि हम अपनी भावी पीढी को इस प्रकार की समस्याओं को सामना करने
के लिए अभी से तैयार करें। पश्चिमी देश आज हमारी परंपराओं और और उपलब्धियों की ओर देख
रहे हैं जिनका कभी वह मजाक उडाते थे आज उसका लोहा मान चुके हैं। अब हम योग की चर्चा
करेंगे।
योग क्या है ?
अध्यात्म के विज्ञान को ही योग कहते हैं।
अध्यात्म का अर्थ है- आत्म जीवन का विकास करना। परम जीवन का विकास करना ही अध्यात्म
कहलाता है। अब प्रश्न उठता है कि क्या केवल जिंदा रहना ही जीवन है?
जीवन क्या है ?
जन्म और मृत्यु के बीच जो गति है वही जीवन है। परंतु परम जीवन की परिभाषा जीवन से भिन्न
है। परमात्मा में समा जाना, या कहें कि परमात्मा में परम गति अर्थात परम विश्राम ही
परम जीवन है। वास्तव में परम जीवन ही आध्यात्मिक जीवन है। जो कि साधना से ही प्राप्त
किया जा सकता है। हम एक शरीर हैं, शरीर के अंदर मन है, मन के भीतर आत्मा है। शरीर से
आत्मा तक की दूरी कैसे तय करें। इस दूरी को तय करने की प्रक्रिया ही योग है। योग की
अनेक रास्ते या पगडंडियां हैं। हम अलग-अलग चक्रों से यात्रा कर उन तक पहुंच सकते हैं।
योग में कुल सात चक्र बताये गये हैं-
मूलाधार चक्र
स्वाधिष्ठान चक्र
मणिचक्र
अनाहत चक्र
विशुद्धि चक्र
आज्ञा चक्र
सहस्रार चक्र ।
इन चक्रों की यात्रा करते हुए ही हम आत्मा तक पहुंचते हैं। यही योग है। अलग-अलग चक्रों
की यात्रा विधि भिन्न है। सातों चक्रों है, जो अलग-अलग तलों का नियमान कराते हैं। जैसे
सबसे नीचे मूलाधार चक्र विद्यमान है, जो रीढ की हड्डी में सबसे नीचे जहां रीढ की हड्डी
का अंत है। वह शरीर का कंट्रोलर है। वह शरीर की विकास प्रक्रिया को दर्शाता है। यदि
मूलाधार चक्र कमजोर है तो शरीर कमजोर रह जाता है। टॉन्सिल की बीमारी हो सकती है। शरीर
की ग्रोथ रूक जाती है। यदि मूलाधार चक्र को जाग्रत या ठीक कर लिया जाये तो इससे संबंधित
अनेकों बीमारियां स्वयं ही ठीक हो जाती हैं।
दूसरा चक्र स्वाधिष्ठान है। यह भोग से संबंधित है।
तीसरा चक्र श्वास तथा रक्षा भाव से संबंधित है।
चौथा चक्र अनाहत चक्र है जो प्रेम से संबंधित हैाा पांचवा चक्र विचार, मित्रता का है।
छठा चक्र ध्यान से संबंधित है तथा सातवां चक्र समाधि से संबंधित है। यदि शरीर में कोई
भी चक्र जाग्रत नहीं है या अपना कार्य नहीं कर पा रहा है, शरीर में चक्रों से संबंधित
अनेकों बीमारी हो जाती हैं। इन चक्रों को योग के द्वारा ही जाग्रत किया जा सकता है।
इसलिए तो कहा गया है कि योग, ध्यान, प्राणायाम, आसनों के द्वारा हमारे शरीर के सभी
शिथिल पडे अंग जाग्रत हो जाते हैं, ठीक से अपना कार्य करने लगते हैं। जिससे हमारा शरीर
निरोगी रहता है। जब शरीर निरोगी होगा तो मन, मस्तिष्क सभी स्वस्थ होंगे। हमारा आध्यात्म
का विज्ञान बहुत ही प्राचीन है, जिनमें अनेकों रोगों के निवारण का रहस्य छिपा है।
हमें सादा जीवन उच्च विचार की नीति अपनानी होगी। कामनाएं, भोग विलास का जीवन आदि को
भुलाकर पीछे हमें फिर से सात्विक जीवन की ओर जाना होगा। हमारी संस्कृति, हमारी परंपराएं
ही हमें इन जटिल परिस्थितियों का सामना करने के लिए सक्षम बनाती हैं। कहते हैं न -
जब जागो, तभी सवेरा। आज मानव जाति को मंथन की आवश्यकता है। कोविड -19 से बहुत ही हानि
हो रही है। अर्थव्यवस्था एक मंदी की ओर जा रही है। लोगों के रोजगार आदि बंद हो गये
हैं। बडी संख्या में लोग मर रहे हैं। किन्तु इसका दूसरा पहलू भी है जिसे हम चाहकर भी
नजरअंदाज नहीं कर सकते।
इस जैविक संक्रमण से पूरी दुनिया घरों में कैद हो गई है। मानव जाति के सभी क्रिया-कलापों
पर विराम लग गया है। इस बीच प्रकृति ने अपना उपचार स्वयं ही आरम्भ कर दिया है। सभी
प्रकार के प्रदूषणों में भारी कमी आई है। वायु शुद्ध हुई है। ध्वनि प्रदूषण न के बराबर
है। नदियां स्वयं निर्मल धारा में तब्दील हो रही हैं। इसके अतिरिक्त और भी बहुत कुछ
है जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। अब मनुष्य को जाग जाना चाहिए। इतना समय हमें बीत
चुका है इस जैविक संक्रमण से जूझते हुए, तो कुछ बातें तो स्वयं ही साफ हो ही गई है।
अष्टावक कहते हैं- ‘हे जनक, कामना जैसी व्याधि नहीं।’ कामना सबसे बडा रोग है। कामना
ही सबसे बडी समस्या है। हे जनक, कामना जैसी व्याधि नहीं, निष्कामना जैसी समाधि नहीं।
जब हम रस लेना आरम्भ कर देते हैं, अर्थात रूचि लेना आरम्भ कर देते हैं यहीं से कामना
का आरम्भ हो जाता है।
हमने किसी की गाडी को जाते हुए देखा, रूचि जागी, फिर कामना जागी, और समस्याओं का आरम्भ
हो गया। कामना की, अब हम कामना को पूरा करने का प्रयास आरम्भ कर देंगे, मानसिक तनाव
आरम्भ् हो जायेगा, इस प्रकार कामनाओं के द्वारा समस्याओं का आरम्भ हो जाता है। कामनाओं
का अंत नहीं है।
गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं-
‘ध्यायते विषयान् पुंस: संगस्ते सूप जायते।
संगात् संजायते काम: कामात् क्रोधोभिजायत।।’
कहने का तात्पर्य यह है कि ‘विषयों का चिन्तन करने वाले मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति
पैदा हो जाती है। आसक्ति से कामना अर्थात इच्छाएं पैदा होती है। इच्छाओं से क्रोध पैदा
होता है। क्रोध होने पर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोह से स्मृति भ्रष्ट हो जाती
है। स्मृति भ्रष्ट होने पर बुद्धिका नाश हो जाता है। बुद्धि का नाश होने पर मनुष्य
का पतन हो जाता है।’
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